“Too Much” Sand, Not Water: A Geostory of Himalayan Riverine Sediments as “Problem”
Abstract
This article examines how a future about surplus sand entered river-engineering vocabulary as an obstruction to the free flow of Himalayan river systems. It is a historical and ethnographic analysis of sand’s conceptualization as a catastrophic material that caused rivers to spill over, which became conducive to its removal from rivers for economic endeavors. Sand holds a unique place in society, it’s the foundation on which roads, bridges, and buildings are built. Today, a shortage of these sediment particles has been described as a moment of economic and environmental crisis. Against the grain of sand’s desirability and shortage as a resource material, I pay close attention to the destructive articulations of the Himalayan earthly forces that made the political economy of extracting excess sand possible.
सार
यह लेख इस बात की जाँच करता है कि कैसे इंजीनियरिंग शब्दावली में अधिक रेत का भविष्य हिमालय नदी में बाधा के रूप में बताया गया । यह एक ऐतिहासिक और नृवंशविज्ञान विश्लेषण है जो दिखाता है की रेत को कैसे विनाशकारी सामग्री बताया गया । यहाँ हम बताते हैं की बाढ़ के कारन नदियों से रेत को हटाने के लिए क्यों अनुकूल समझा गया । रेत समाज में एक अद्वितीय स्थान रखती है । यह वह सामग्री है जिस पर सड़कें, पुल और इमारतें बनाई जाती हैं। आज रेत की कमी को आर्थिक और पर्यावरणीय संकट का श्रोत बताया गया है। किन्तु हम यहाँ रेत के अधिकता और कमी पर तर्क नहीं करेंगे। बजााय हम इंजीनियरिंग में हिमालय की ताकतों की विनाशकारी अभिव्यक्ति पर बारीकी से ध्यान देंगे जिसने अधिक रेत निकालने की राजनीतिक अर्थव्यवस्था को संभव बनाया है।
Keywords
catastrophe; economy; engineering; geology; Himalayan rivers; politics; sediments; विनाश; अर्थव्यवस्था; इंजीनियरिंग; भूविज्ञान; हिमालय नदी; राजनीति; रेत
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